পাতা:एकोत्तरशती — रवीन्द्रनाथ ठाकुर.pdf/১১

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नागरिक संस्कृति से कहीं अधिक गहराई तक यह संस्कृति लोगों के जीवन में अपनी जड़ें जमा चुकी थी। इस प्रकार से रवीन्द्रनाथ ने एक ऐसे जगत् में प्रवेश पाया जिससे शहर के लोग अपरिचित होते हैं। जातीय चेतना के कुछ गंभीरतम तलों में उनकी जड़ें जमीं। साधारण लोगों के भरे-पूरे जीवन का संस्पर्श ही उनकी अशेष सृजनी शक्ति के मूल में है और यही कारण है कि उन्हें प्रेरणा-शक्ति की कभी कमी नहीं हुई।

 रवीन्द्रनाथ के जीवन और उनकी रचनाओं पर विचार करते समय उनकी प्रतिभा की अद्भुत जीवनी-शक्ति से बार-बार चकित हुए बिना कोई नहीं रह सकता। वे प्रमुख रूप से कवि थे, लेकिन उनकी दिलचस्पियाँ कविता तक ही सीमित नहीं थीं। साहित्य के विविध क्षेत्रों में उनकी देन का संकेत हम पहले ही कर चुके हैं। साहित्य को यदि हम व्यापकतम अर्थ में भी लें, तो भी हम पाते हैं कि यह क्षेत्र उनकी समस्त उद्दामता को समेट नहीं सकता। वे संगीतज्ञ तथा बहुत बड़े चित्रशिल्पी भी थे। इसके अलावा धर्म और शिक्षा-संबंधी तत्त्व-चिंतन, राजनीति और सामाजिक सुधार, नैतिक उत्थान और आर्थिक पुननिर्माण के क्षेत्रों में भी उनकी देन बड़े महत्त्व की है। वस्तुतः इन क्षेत्रों में इनका कार्य इतने महत्त्व का है कि वे आधुनिक भारत के निर्माताओं में गिने जा सकते हैं।

 जीवन को पूर्ण और अविभाज्य इकाई मानने में ही रवीन्द्रनाथ की शक्ति निहित है। आदर्शों अथवा संस्कृतियों के द्वंद्व या विखंडन में उनकी शक्ति को कभी भी विभाजित नहीं किया। इसलिए इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि कला और जीवन को उन्होंने अलग-अलग नहीं माना। उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में सौन्दर्य-शास्त्र के एक नये सिद्धान्त ने यूरोप पर आधिपत्य जमा लिया था। बहुत लोग ऐसे थे जिनका कहना था कि कला के उद्देश्य से ही कला को अपनाना चाहिए; यह कोई जरूरी नहीं कि जीवन से उसका संबंध हो ही। हवाई महल या गजदंतमीनारें ही कलात्मक प्रयासों के प्रतीक और नमूने बन गई थीं। इस