পাতা:एकोत्तरशती — रवीन्द्रनाथ ठाकुर.pdf/১৪

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 रवीन्द्रनाथ को धरती से इतने अटूट बन्धन में केवल प्रकृति-सौन्दर्य ने ही नहीं बाँधा। उन्होंने धरती को इसलिए भी प्यार किया कि वह मनुष्य की वासस्थली है। अनगिनत कविताओं और गीतों में उन्होंने मनुष्य के प्रति अपने प्रेम को उड़ेला है। मनुष्य के हृदय की शायद ही कोई ऐसी संवेदना हो जिसने उनके हृदय को स्पंदित नहीं किया। सुख-दुःख से भरे मानव की गहन प्रेम-लीला की हजारों अभिव्यक्तियाँ कुछ ऐसे शब्दों में केलासित हो गई हैं कि जिन्हें कभी भुलाया नहीं जा सकता। नैराश्य, मन की व्यथा तथा निष्फल प्रतीक्षा की असह्य पीड़ा का सजीव चित्रण पाठक को विस्मय में डाल देता है। उन्होंने मनुष्य के भावावेगों के चिरन्तन साथी के रूप में भी प्रकृति को चित्रित किया है। वे जानते थे कि जीवन नाना संघर्षों और प्रचेष्टाओं से भरा हुआ है और यह संसार त्रुटियों से रहित नहीं है, लेकिन उनका विश्वास यह भी था कि त्रुटियों, दोषों, क्लेशों और लालसाओं के कारण हमारा यह सांसारिक जीवन मनुष्य के लिए और भी प्रिय हो उठता है।

 रवीन्द्रनाथ ने संसार को केवल ऐसा रंगमंच ही नहीं माना, जहाँ मनुष्य जीवन में पूर्णता प्राप्त करने का प्रयास करता है, बल्कि उसे स्नेहमयी माँ के रूप में भी देखा है, जो जीवन के विविध अनुभवों में सारगर्भित अर्थ खोजने की साधना में लगे मनुष्य की निगरानी करती रहती है। रवीन्द्रनाथ कोई संन्यासी नहीं थे, और न ही वह कोई सुख-विलासी या इंद्रिय-सर्वस्ववादी ही थे। एक ओर तो उन्होंने उस आदर्श का जान-बूझकर प्रत्याख्यान किया, जो शरीर-धर्मों और नानाविध भोगों को अस्वीकार करता है, तथा दूसरी ओर उन्होंने केवल इंद्रिय-सुख या केवल भोग-लिप्सा को ही सब कुछ कभी नहीं माना। जीवन के सम्यक ज्ञान की प्राप्ति की साधना में सतत लगे रहने को ही वे जीवन का वास्तविक गौरव मानते थे। जीवन की इस परिपूर्णता को पाने की यह आकांक्षा बार-बार उनकी कविताओं में प्रकट हुई है। 'वसुन्धरा' नामक अपनी कविता में उन्होंने