পাতা:एकोत्तरशती — रवीन्द्रनाथ ठाकुर.pdf/১৯

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उत्पन्न होती है। अल्पवयस्क तरुण होते हुए भी रवीन्द्रनाथ ने इस असुंदरता का वर्णन किया है। 'नैवेद्य' तक आते-आते उनमें यह दार्शनिक पुट गंभीर और गाढ़ हो उठा है, लेकिन बौद्धिकता और भावावेग के समन्वय का सुन्दरतम रूप हम शायद 'बलाका' में ही पाते हैं। 'बलाका' की कुछ कविताएँ विचार और संवेदना के समन्वय को प्रकाश में लाती हैं। और इस समन्वय के फलस्वरूप दर्शनशास्त्र के सिद्धान्त विशुद्ध गीति-काव्य का रूप ले लेते हैं।

 अपने जीवन के प्रायः अन्तिम दिनों तक रवीन्द्रनाथ नई अनुभूतियों और नई अभिव्यक्तियों के लिए सतत-प्रयासी रहे। साठवें साल के बाद तो उनकी गीति-रचनाओं की जैसे बाढ़-सी आ गई थी। और वे रचनाएँ उनकी युवावस्था के प्रारम्भिक काल की उत्कृष्ट रचनाओं तक से होड़ लगा सकती हैं। इस काल की कविताओं में गंभीर संवेदना और भावोद्वेग का एक नया सुर है जो दुख से तपकर विशुद्ध हो चुका है। इस दशक में व्यक्तित्व के जो घनिष्ठ सुर और निजत्व-भाव मिलते हैं, उसका स्थान अगले दशक में एक गहन एवं गंभीर मानव-धर्म ने ले लिया है। पहले की उनकी रचनाओं में भाव और भाषा का जो प्राचुर्य था, उसके स्थान पर अब भाव और भाषा की एक अपूर्व किफ़ायतशारी देखने को मिलती है। अन्त की उनकी कुछ कविताओं में सामर्थ्य और आत्म-विश्वास का एक ऐसा भाव है जिसका बुद्धि-तेज हमें चकित कर देता है। इसके अलावा जीवन के चरम लक्ष्य के संबंध में उन्होंने कुछ प्रश्न नये सिरे से भी उठाए हैं और साथ ही बड़े शान्त और स्निग्ध भाव से जीवन को उसकी सभी न्यूनताओं और संभावनाओं के साथ स्वीकार किया है।

(३)

 रवीन्द्रनाथ ने एक हज़ार से अधिक कविताएँ और दो हज़ार गीत लिखे हैं। वे मुश्किल से पन्द्रह वर्ष के रहे होंगे जब उनकी प्रथम पुस्तक प्रकाश में आई और अन्तिम कविता उनकी मृत्यु के ठीक