পাতা:एकोत्तरशती — रवीन्द्रनाथ ठाकुर.pdf/২৬

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  रवीन्द्रनाथ की प्रतिभा प्रधान रूप से गीति-काव्यात्मक थी, लेकिन कभी-कभी हम उनमें समाज की बुराइयों के विरुद्ध अगर कटूक्ति नहीं तो व्याजोक्ति का तीव्र स्वर अवश्य पाते हैं। वे जानते थे कि प्रचलित धारणा के अनुसार आध्यात्मिकता के संबंध में जो भारतीय दावा है, वह बहुत-कुछ तो विचार करने की अक्षमता अथवा अनिच्छा के सिवा और कुछ नहीं है। अपनी कविता 'हिं टिं छट्' (सं॰ ९) में रवीन्द्रनाथ ने निर्मम हो कर गंभीरता के उस घटाटोप को छिन्न-भिन्न कर दिया है जो बहुधा एक खाली दिमाग को छिपाए रहता है। 'दुइ पाखी' (सं॰ १०) में उन्होंने उन निष्प्राण परंपराओं और अर्थहीन आधारों की खिल्ली उड़ाई है, जिन्होंने जीवन को जटिल कर रखा है। 'देवतार ग्रास' (सं॰ २८) में उन्होंने बद्धमूल धारणा और मनुष्य के धर्म के बीच होने वाले संघर्ष का चित्रण किया है और दिखलाया है कि किस प्रकार से बाह्याचार के ऊपर सत्य की अन्तिम विजय होती है। बाह्याचारों में मनुष्य सत्य को खो देता है। 'अपमानित' (सं॰ ६१) और 'धूलामन्दिर' (सं॰ ६२) में हम मनुष्य की अवमानना के विरुद्ध घृणा और रोष के अन्तर को पाते हैं। जीविका-निर्वाह के लिए अपनाई गई वृत्ति के आधार पर किसी को छोटा और किसी को बड़ा मानने को वे कदापि तैयार नहीं थे।

 कुछ आलोचक यह आपत्ति उठा सकते हैं कि इस संग्रह में उनके उत्तरकालीन जीवन की कविताएँ ही अधिक हैं। इस अभियोग में शायद कुछ तथ्य भी है, क्योंकि इस संग्रह में सन् १९२८ ई॰ से सन् १९४१ ई॰ तक की २० से अधिक कविताएँ हैं और सन् १८८२ ई॰ से सन् १९२४ ई॰ तक की केवल ८० ही कविताएँ ली गई हैं। इसका एक कारण यह है कि अभी तक के मूल बंगला के संग्रह में अथवा दूसरी भाषाओं के अनुवादों में प्रारंभिक काल की रचनाओं का तो आम तौर पर बहुत-कुछ बेहतर और अधिकतर समावेश हो चुका है। उत्तरकालीन रचनाओं से कुछ अधिक चुनाव करने का दूसरा कारण यह है इस काल की कविताओं में विचार और अभिव्यंजना की दृष्टि से