পাতা:एकोत्तरशती — रवीन्द्रनाथ ठाकुर.pdf/২৯

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प्रारंभिक काल की कुछ कविताएँ अति उत्कृष्ट हैं और बाद की कुछ कविताएँ ऐसी हैं मानो वे बिना किसी प्रेरणा के लिखी गई हों। चाहे जो हो, अस्सी वर्ष की अपनी लंबी उम्र में अपनी अन्तःप्रेरणा को उन्होंने जिस प्रकार से जिलाए रखा, वह उन्हें युग-युग तक जीवित रहने वाले महान कवियों की कोटि में रख देता है। जिस उद्दाम तेज, उद्यम और जीवनी-शक्ति से वे ऐसा करने में समर्थ हो सके उसके पीछे उनके व्यक्तित्व की पूर्णता और अखण्डता है। उन विभिन्न सूत्रों को उन्होंने अपने में एकत्र कर लिया था जिनसे आज के भारत की समन्वयात्मक संस्कृति का निर्माण हुआ है। यह गौरव उन्हींको प्राप्त है कि उन्होंने भारत के बहुमुखी जीवन के भिन्न-भिन्न पहलुओं को लिया और उन्हें आलोकित किया। संस्कृत-साहित्य से उन्होंने बहुत-कुछ लिया और बंगला की शब्दावलि और छन्द को समृद्ध किया। वैष्णव-गीति-काव्यात्मकता और सूफी रहस्य-भावना के पूर्ण एकीकरण का श्रेय उन्हींको प्राप्त है। मध्य युग की सामन्तशाही प्रथा में जिस दरबारी ढंग का विकास हुआ, उसकी व्याख्या करने में उन्होंने पूरी सहानुभूति और कल्पना से काम लिया है। इसीके साथ सर्व-साधारण के जीवन से भी उन्होंने ऐसा बहुत-कुछ लिया, जिसका उपयोग पहले नहीं हुआ था। बंगाल के गाँवों के भाव-चित्रों और प्रतीकों का तानाबाना उनकी कविता में बड़े कौशल से बुना गया है। बंगला-साहित्य में उन्होंने यूरोप के आदर्शों और चिन्तन का भी सुन्दर सामंजस्य उपस्थित किया। 'बलाका' संग्रह की बहुत-सी कविताओं में शक्ति और गति के भाव का समावेश यूरोप की प्रेरणा कहा जा सकता है। मनुष्य-जाति ने अति प्राचीन काल में ही यह समझ लिया था कि सब-कुछ क्षण-स्थायी है। इसे सभी वस्तुओं में छिपी गति का प्रतीक बना कर रवीन्द्रनाथ ने इसमें एक नया अर्थ भर दिया है।

 थोड़े में, प्राचीन भारतीय साहित्य की विरासत, मुग़ल दरबार के विशिष्ट तौर-तरीके, बंगाल के सर्व-साधारण के जीवन के सहज सत्य और आधुनिक युरोप की उद्दाम शक्ति और बौद्धिक सबलता के