পাতা:কাদম্বরী (হরিদাস সিদ্ধান্তবাগীশ).pdf/৬৩৯

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{88 वादब्बरो पूर्वभागे मिब, (य) विसर्पञ्चखकिरणतया अतिरभसेन प्रधाविताभिरिव विवष्टिताभिरिव प्रहसिताभिरिवाङ्ग लौभिरुपैतम्, (र) स्वर्शलोभाञ्च तत्कालक्कत सत्रिवेशा सरागा पञ्चापोन्द्रियल्लप्तोरपरा इबाङ्ग लोरुद्दहन्तम (१) प्रसारितवान् पाणिम् (ख) । तत्र च सा तत्काल सुलभ-विलास दशन कुतूहलिभिरिव कुतोऽप्यागत्य सर्वरसैरधिष्ठित (व) । तैनानिबद्धलच्ह्यतया शून्थप्रसारितन, चन्द्रापीडहस्तान्चषणायेव पुर - प्रवति व नखाशुनिवहैन, वेपथ,चलितवलयावलौवाचालेन सभाषणमिव कुर्वता कष खेन रुदिता या थरिलो शत्रुबौखखा लीचनी परामशे न दयया अन्नु माज यितु पुनरामश्नेन खग्रा अञ्चनविन्दव कष्जलकथा यत्र तमिव । अवापि पूव वदुन्ग्न चा । (र) विसपदिति । विसपन्त प्रसरन्ती नखकिरणा यस्य तस्य भावस्तया छेतुना । श्रतिरभसेन नितान्त वेगेन । नख'करण रैव विवद्धि ताभिरिवत्यथ । प्रहसिताभिरिव प्रसृतनखकिरणानां हासस्य च समानशूधत्वा दिति भाव । अत्र तिसणामेव क्रियीत्य चाणा मिर्थी निरपेचतथा ससृष्टि । (ख) अशे ति । शिश्व कादथ्वय्र्या स्यश्लीभात् तझिन् कालै क्कत सत्रिवेश उपस्थितिर्याभिस्ता सरागा सानुरागा सलौहित्याथ भपरा पञ्च चङ्ग लौरिब पञ्चापि इन्द्रियद्वत्तौ तद्दशन तत्कथाश्रवणतइदनघ्राण तटधररसन तत्यथ खचणान् चञ्चरादौनां पचानां भानेन्द्रियाणां व्यापारान् तासामिच्छामित्यथ उइइन्त जनकतासम्बन्धन थारयन्त जनयन्तमिति तात्पर्थम् । भत्र जात्युत्प्रेद्यालढार । (ब) तघ्नाति । ििख तत्र ताग्वलदानसमये तअिन्। काले सुलभा अनायासमाध्या यै विलासा कादम्बय्याँ विधमाखघां दश ने कुतूहलमेषामसौति तैरिव सव रसै सकखप्रकारानुरागै कुतोऽप्यागत्य सा कादम्बरौ भधिष्ठिता चाश्रिता । धव गुपीत्य चालडार । एङ्गरादौ विषे वैौथ्य गुणे रागे द्रवे रस । इत्यमर । केचिक्षु सव रसै प्रडारादिभिरिति व्याचषते तदसत् रसस्य स्वशब्दोशिदोषप्रसङ्गात् यदार्नौ कादग्वर्यां वैौरबौभत्सादि रखाश्च संव धवाधिष्ठाग्लखिश्रक्षाश्च । (ग) तेनेति । न निबद्ध न छात लच्य रह्याननिषयी येन तस्य भावस्तया हेतुना शून्ब चन्द्र पौडहस्तब्यति रिशख्याने प्रसारितेन अतएव चन्द्रापौड़हस्तस्य भन्च षणायेव पुर प्रवक् ित अग्रत प्र रिती नखांशुनिवड़ी नखकिरण আকর্ষণ করায় শত্রুপক্ষীয় লক্ষ্মী রোদন করিতেছিলেন তাই আবার দয়া করিয় তাহার অশ্রু মার্জন করিবাব জন্ত নয়নে হস্তামর্শন করায় তা তে সেই নযনেব কাজল লাগিয়া রহিযাছে। (র) নখের কিরণ ছড়ায় পড়িয়াছিল বলি স্থা বোধ হইতেছিল যে জঙ্গুণীসমূহ যেন হাসিতেছে, অতিবেগে ধাবিত হইয়াছে এব সেই নখেব কিরণেই তাহাদিগকে যেন বঞ্চিত করিতেছে (ল) এব চম্রাপীড়ের সেই হাতখানি কাদম্বরীকে স্পর্শ করিবার লোভে অপর পাচট আঙ্গুলের স্তায় অনুরাগের সহিত সেই সময়ে উপস্থিত পাচট ইন্দ্ৰিয়বৃত্তি কই ধারণ করিতেছিল (ব) এব তখন সকল প্রকার অমুরাগ সেই সময়ে অনায়াসলভ্য কদম্বরীর বিলাস দেখিবার জন্য ধৌতুকী হষ্টয়াই যেন কোন অনির্দিষ্ট স্থান হইতে আসিয়া তাহার হৃদয়ে অধিষ্ঠান করিল। (শ) এই অবস্থায় কাদম্বরী হস্ত প্রসারণ করিয়া চন্দ্রাপীড়ের (१) चपराइ खैौ व्रतीरिवान्नुखौं ।