পাতা:एकोत्तरशती — रवीन्द्रनाथ ठाकुर.pdf/৪৮

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व्यक्त प्रेम

केन तबे केड़े निले लाज-आवरण!
हृदयेर द्वार हेने बाहिरे आनिले टेने,
शेषे कि पथेर माझे करिबे वर्जन॥

आपन अन्तरे आमि छिलाम आपनि,
संसारे शत काजे छिलाम सबार माझे,
सकले येमन छिल आमिओ तेमनि॥

तुलिते पूजार फुल येतेम यखन—
सेइ पथ छाया-करा, सेइ बेड़ा लता-भरा,
सेइ सरसीर तीरे करबीर बन—

सेइ कुहरित पिक शिरीषेर डाले,
प्रभाते सखीर मेला, कत हासि कत खेला,
के जानित की छिल ए प्राणेर आड़ाले॥

बसन्ते उठित फुटे बने बेलफुल,
केह बा परित माला, केह बा भरित डाला,
करित दक्षिण वायु अञ्चल आकुल॥


 केन...निले—क्यों तब काढ़ लिया (हटा दिया); हेने—तोड़ कर, आघात कर; आनिले टेने—खींच लाए; करिबे—करोगे; वर्जन—त्याग।

 आमि—मैं; छिलाम—थी; सबार साथे—सबके मध्य, सबके बीच; येमन—जैसा; छिल—था; आमिओ—मैं भी; तेमनि—उसी प्रकार, वैसा।

 तुलिते—चुनने; येतेम—जाती; सेइ—उस; करबीर बन—कनेर का वन।

 कुहरित—कूजित; कत—कितना; के—कौन; जानित—जानता; की—क्या; आड़ाले—अन्तराल में।

 उठित फूटे—प्रस्फुटित हो उठता; केह—कोई; परित—पहनता; भरित—भरता; डाला—फूल की डलिया।