পাতা:বঙ্গদর্শন-অষ্টম খণ্ড.djvu/১৬৬

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রঙ্গমতী । - কাব্য। (ই। ধীলচন্দ্র Lসল यज छायtग्न छे*नर्श नख८कह नभाcनां 5न क८ञ्चअ ज1,~-८कन न? नछञ्चtछब्रडशि সমালোচনার ৰোগ্য নহে । লমালোচ্য “तक्रमलौ का काभ्र” फें९नर्ण •ला चारहदिक नथाटणाछनप्र वात्रा । वात्राणौब्र कादा दगडाङीब्र छेनब्र अcमरकन्न ७भमझे अफ्रेंज छखिन्, cक छैाहाब्र अनग्रिाहम श्न्नि कग्निरएछ वान ८ष **शtणांजौ कयि ८कन ?” মনে হইতেছে, সেদিন এক জম লেখক लिस्त्रामा कब्रिटङहिटलम “ बात्राझैँो कवि नझ ८ङ्गन r” ८अंन् कथं नैिर् ५:झबttच। बलिब्रl ऐं#1 बज्र नझ्छ मtइ ; अर्थछ, ताजीलैंोटक अङ्गनिक दलिरङ daiण cथम कैंधिब्रा छेt* ! ८ण रांश इडेक, cश &दक्लिब करुिeधङिछ विकारwब्र eवंवाम से°कग्र१, वज्ञानभारज ठाइ1 वफ़ माई । এই চিরস্থিতিশীল সমাজে ৰৈচিত্ৰ স্থাদির कीर्थ : वाइकठिंडा श्राणणाथैो । श्ङब्रा९ चिानैण चौकब्र कब्रिट्वन cय वचनबाथ `कitवाब्र अ*छ cभय नtइ । बtजब्र नव छ= cचक८द्ध मजब्रोमिल £शयन छ वrाँइडগতিকে ৰহিন্তে পায়, সমাজক্ষেত্রে কাব্যगोत्र**छवन ८कोडशिालानैौ मदद ।

  • cब वचक्रुझ थदकांचा जकल जछिल *ि कtभ ? रेइब्रिडेछद्र णश्छ । क्षमहे

এই চিরস্থিতিশীল সমাজের অটুট বন্ধনীগুলি কালপ্রপ্তাবে এক এক বার শিথিল হইয়াছে, অমনি বঙ্গে কাব্য জন্মিরাষ্টে । বৈদেশিক ভাবপ্রবাহ যখন বfহয়াচে, তখনই কাব্য দেখা দিয়াছে—কেন না তখন সমাজ বৈচিত্র্যের মহিম বুৰিয়াছে। স্বীকার করি, সমাজের এইরূপ অৰস্থাতেই সকল ८मान काया जरश्च । किद्ध हैहाँ७ चैौकांब्र করি যে, স্থিতিশীলতায় যঙ্গসমাজের ' छूजना नाहे । नशैौभूषनैौऊ कर्कभরাশিতে কতিপয় সহস্র বর্ধ মধ্যে ৰঙ্গভূমি গঠিত না হউক, কিন্তু স্থিতিশীল আৰ্য্যজাতির শেষ লীলাম্বলী এই বঙ্গভূমি। ठाहे नमांश्रयझन ७ङ कर*ांब्र !-८कन नt, निदिखांब्र उधां८ञ cथर्मौ* ऍछेखछलप्ठ ब्र झम्न ! जमाछयकन ७ ठ कर्फ़ाब्र वलिङ्गाहे, শিথিলাবস্থায় ইহার কার্য্যক্ষেত্র এত প্রশস্ত হইয় উঠে । ৰেখানে ঘাতের বেগ প্রবল, প্রতিঘাতের বেগ সেখানে षश् । o' बाजशाब्र “ब्रत्रञउँौब" कवि, উৎসর্গ नtब चैौब्र बौश८मङ्ग £बल्लेिबा बूकाँहेष्ठ প্রয়াস পাইয়াছেন। জন্য দেশে সে कार्थी नमtcणांsध्छब्र । हेशंरडई ७थtछम