পাতা:एकोत्तरशती — रवीन्द्रनाथ ठाकुर.pdf/১৩

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उतार लिया है। कालिदास के ज़माने से ही भारतीय कवियों ने वर्षा ऋतु का गुण-गान अपूर्व उल्लास के साथ किया है। अपने सैकड़ों गीतों और कविताओं में रवीन्द्रनाथ ने वर्षा के बदलते रूपों का चित्रण किया है। वास्तव में वर्षा-ऋतु-संबंधी उनके गीत और उनकी कविताएँ हमारी जातीय विरासत का एक अंग हो गई हैं। वर्षा के आगमन के ठीक पहले झुलसी हुई धरती की प्रतीक्षा, पहले-पहल के दौंगरे के बाद भींगी मिट्टी से उठती सौंधी सौंधी गन्ध, नई-नई उगी घास के हरे अंकुरों में प्राणों का स्पन्दन, काले-काले बादल जो प्रातःकालीन स्वच्छ प्रकाश को धुँधला कर देते हैं तथा सायंकालीन छाया में जादू भर देते हैं, रात्रि की स्तब्धता में पड़ती वर्षा की अविराम टप टप; ये तथा सैकड़ों अन्य चित्र रवीन्द्रनाथ के मुग्धकारी काव्य में प्राणवान हो-हो उठते हैं। उनमें उन्होंने मानव-हृदय के सुख-दुःख का ताना-बाना बुन दिया है। यहाँ तक कि प्रकृति और मनुष्य एक-दूसरे की मनोदशा को प्रतिबिंबित करने लगते हैं और उनका पार्थक्य ओझल हो जाता है।

 रवीन्द्रनाथ ने दूसरी ऋतुओं को भी आँखों से ओझल नहीं होने दिया। शरद् और वसन्त के भिन्न-भिन्न भावों का चित्रण उन्होंने किया है। नव वसन्त का उद्दाम उन्माद, शिशिर ऋतु का बन्धनों से मुक्ति पाने का भाव, क्षिप्र गति से फूट-फूट उठे रंग और ध्वनियाँ आदि उनकी बहुत-सी कविताओं और गीतों में प्रतिबिंबित हैं। उनमें केवल वसन्त का आनन्द और शक्तिमत्ता ही नहीं बल्कि उसकी अनित्यता और क्षण-भंगुरता के भाव भी प्रतिफलित हुए हैं। पूर्णता और परिपक्वता के भाव लिए शरत् का मेघ-धुला आकाश रवीन्द्रनाथ की बहुत-सी कविताओं में विशेष रूप से प्रकट हुआ है। उनके एक अत्यन्त सफल गीति-नाट्य की रचना शरद् को ले कर ही हुई है, जिसमें कार्यसंकुलता के बोझ से मुक्ति पाने का भाव है। शीत और ग्रीष्मकाल को भी उन्होंने नहीं भुलाया। अपनी एक सुप्रसिद्ध कविता में रवीन्द्रनाथ ने ग्रीष्म को एक ऐसा कठोर तपस्वी माना है, जो साँसें रोके नवजीवन के आविर्भाव की प्रतीक्षा कर रहा है।