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प्राण

की जानि की हल आजि, जागिया उठिल प्राण,
दूर हते शुनि येन महासागरेर गान। 


ओरे चारिदिके मोर
ए की कारागार घोर,
भाङ् भाङ् भाङ् कारा, आघाते आघात कर्।
ओरे आज     की गान गेयेछे पाखि, 

एसेछे रविर कर॥
१८८२  ‘प्रभात संगीत’


प्राण

मरिते चाहि ना आमि सुन्दर भुवने,
मानवेर माझे आमि बाँचिबारे चाइ।
एइ सूर्यकरे एइ पुष्पित कानने
जीवन्त हृदय-माझे यदि स्थान पाइ!
धराय प्राणेर खेला चिरतरङ्गित,
विरह मिलन कत हासि-अश्रुमय—
मानवेर सुखे दुःखे गाँथिया संगीत
यदि गो रचिते पारि अमर-आलय!
ता यदि ना पारि तबे बाँचि यत काल
तोमादेरि माझखाने लभि येन ठाँइ,


 की—क्या; हल—हुआ; हतसे; शुनि—सुनता हूँ; येन—जैसे; एसेछे—आया है।


 मरिते....ना—मरना नहीं चाहता; माझे—मध्य में, बीच में; बाँचिबारे—बँचना, जीना; एइ—इस; धराय—पृथ्वी पर; कत—कितना; गाँथिया—गूँथ कर; रचिते पारि—रच सकूँ, बना सकूँ; ता—उसे; यत—जितना; तोमादेरि—तुमलोगों के; माझखाने—मध्य में, बीच में; लभि—लाभ करुँ, प्राप्त करुँ; येन—जिसमें; ठाँइ—जगह, स्थान;