পাতা:एकोत्तरशती — रवीन्द्रनाथ ठाकुर.pdf/৩৭

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एकोत्तरशती

लहरीर ’परे लहरी तुलिया
आघातेर ’परे आघात कर्।
मातिया यखन उठेछे परान
किसेर आँधार, किसेर पाषाण!
उथलि यखन उठेछे वासना,
जगते तखन किसेर डर!

आमि     ढालिब करुणाधारा,
आमि     भाङिब पाषाणकारा,
आमि     जगत् प्लाविया बेड़ाब गाहिया
आकुल पागल-पारा।
केश एलाइया, फुल कुड़ाइया,
रामधनु-आँका पाखा उड़ाइया,
रविर किरणे हासि छड़ाइया दिब रे परान ढालि। 
शिखर हइते शिखरे छुटिब,
भूधर हइते भूधरे लुटिब,
हेसे खलखल गेये कलकल ताले ताले दिब तालि।
एत कथा आछे, एत गान आछे, एत प्राण आछे मोर,
एत सुख आछे, एत साध आछे—प्राण हये आछे भोर।। 



तुलिया—उठा कर, उत्तोलित कर; यखन—जब; किसेर—किसका; तखन—तब।

 आमि—मैं; ढालिब—ढालूँगा; गाहिया—गाते हुए; पागल-पारा—पागल के सदृश; एलाइया—आलुलायित कर, खोल कर; कुड़ाइया—चुन कर, बटोर कर; रामधनु-आँका—इन्द्रधनुष अंकित किया हुआ; पाखा–पंख; हासि—हँसी; छड़ाइया—विकीर्ण कर; दिव—दूँगा; हइते—से; छुटिब—दौडूँगा, वेग से प्रवाहित होऊँगा; लुटिब–लोटूँगा; हसेहँस कर; गेये-गा कर; एत—इतना; कथा—बात; आछे—है; मोर—मेरा; भोर—विभोर।