পাতা:হিতোপদেশঃ (লক্ষ্মীনারায়ণ ন্যায়ালঙ্কার).pdf/৭১

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ፄ8 ॥ झितापट्टैश्! ॥ चरित मगधदैशी चल्यकावर्ती नामारखानी तस्यं चिरा श्मइता नॄ कॄन ऋगकाकैी निवसतः स्च मृगः खेच्छया भाग्यन्ड़प्टपुटाङ्ग केनचित् शृगाखेनावखैंकित तं दृष्ट्ा शृगालॆाऽचिन्तयत् चाः कथमेतन्मंीसं भचयामि भवतु विश्वासं तावदुत्पादयामि इत्याखेाच्यापस्वत्धा ब्रवीत् सिच कुशलं ते। मृगेण उतं करूवं स त्रूते चुद्रबुद्वि नामा जम्बुकेऽहं यचारखे वन्धुहीनेाच्चतवद्भिवसामि इदानीं त्वं मिचमासाद्य पुनः सवन्धुज्जविलेाकं प्रविष्टे स्क्किच्यधुना तवानुचरेण मया सर्वथा भवितव्यमिति सृगे ऐाक् एवमस्तु ततः पश्चाद्रुतं गते सवितरि भगवति मरंी चिमाखिनि तैा मृगख वासभूमिं गतैा तच चम्पकष्टच शाखायं सुदुडूिनामा कार्काञ्चगखचिरमिच निवसति । মগধদেশে চম্পকাবতী নামে এক বন থাকে তাহাতে হরিণ ও কাক দুই জন বহুকাল বড় স্নেহেতে বাস করে সেই হরিণ আপন ইচ্ছাতে ভূমণ করত কোন শৃগাল তাহাকে হৃষ্ট পুষ্টাঙ্ক দেখিয় চিন্ত করিল ম : কি প্রকারে এই উত্তম ললিত, মাংস খাইব যা হউক বিশ্বাস জন্মাই ! এই পরামশ করিয়া সমীপে গিয়া বলিল হে মিত্র তোমার মঙ্গল । মৃগ কহিল কে তুমি শৃগাল কহিতেছে ক্ষুদ্রবুদ্ধি নামে শৃগাল আমি এই বনেতে মৃত শরীরের ন্যায় বান্ধবহীন হইয়া বাস